ग्रहणी की अलमारी

पता है आपको हम ग्रहणियाँ कितनी समझदारी से घर चलाती है? बस कमजोर पड़ जाती हैं तो अपनी अलमारी को देखकर। कहीं भी जाना हो, कपड़े होते ही नहीं! क्या पहनूँ, कैसे अलग दिखूँ, कितनी परेशानियाँ है भाई! 

जब भी अलमारी खोलूँ, कुछ कपड़े तो बड़ी हसरत भरी नज़रो से मुझें देखते हैं और सोचते होंगे कि हम तो पड़े-पड़े ही छोटे हो गये। और कुछ बेचारे तो वक़्त के मारे समय से पीछे रह गये, बाकी बचे-खुचे कई बार पहने जा चुके हैं। कुछ तो अलमारी खोलते ही लड़ते-झगड़ते नीचे आ गिरते हैं और गुस्से से लाल होकर कहते हैं, “हमें नहीं रहना तुम्हारे पास, दम घुटने लगा है हमारा। ठूँस-ठूँस कर भर रखा है साँस भी नहीं आता हमें। कभी बाहर की दुनिया दिखाओ।”

अब बताइए मुझे, कैसे रोकूँ कपड़ों की लड़ाई को? 

अब तो ये हाल है पति से कपड़े छिपाती हूँ, पति अलमारी खोल ना ले इसलिए lock लगाती हूँ।

पति में Income Tax Officer नज़र आने लगा है। हमेशा डर में रहती हूँ, कहीं रेड ना पड़ जाये इस ग्रहणी की अलमारी पर। 


नयी अलमारी हड़पने की रणनीति बनाती। 

लता मक्कड़

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