शादी की थाली
कुछ दिन पहले मुझे एक शादी में जाने का मौका मिला। मैंने भी सबकी तरह कार्ड खोलकर सबसे पहले खाने का समय और स्थल ही देखा। जैसे ही हम विवाह में पहुँचे, वहाँ का नजारा देखने लायक था। बड़ा सा समारोह स्थल, खाने के अलग-अलग काउंटर: गुजराती, पंजाबी, इटैलियन, मैक्सिकन, और ना जाने क्या-क्या। सात से सत्तर की उम्र तक देखी हर खाने की चीज़ थी वहाँ। नहीं था तो कंट्रोल हमारी जीभ पर।
जीवन साथी चुनने में इतना कन्फ़्यूजन नहीं हुआ था जितना खाना चुनने में हो रहा था। आजकल की शादियों में थाली का प्राइज़ तो बढ़ाते हैं परन्तु साइज़ नहीं। बेचारी थाली सम्भाल ही नहीं पाती देशी-विदेशी व्यंजनों का भार। फिर क्या था? मैंने भी आतुरता से अपनी थाली लगायी, मन में तो चल रहा था कि सब कुछ समा जाये इसमें। मैंने कोशिश भी की, तभी मेरी थाली में से पापड़ की चीख सुनाई दी, “अरे! भाई इधर—तुमने मुझे सलाद से ढक दिया, टुकड़े कर दिये मेरे।”
पापड़ को बचाने के चक्कर में गुजराती फाफड़े की मीठी कढ़ी पंजाबी छोले में जा मिली। इतने में पंजाबी छोले ने शोर मचाया, “तेरी तीखास बढ़ जाये तो मुझे मत कहना।” तब तक रायते ने गुलाब-जामुन को अपने आग़ोश में ले लिया और मैंने भी उसे विदेशी दही बड़ा समझकर खा लिया। फिर क्या था? गुलाब-जामुन बहुत नाराज़ हुआ मुझ पर, “ज़िंदगी में पहली बार इतना गोरा दिखा था मैं।”
बस इसी घबराहट में जल्दी-जल्दी चलने के कारण दाल कटोरी से उछल-उछल कर रोटी को भिगो रही थी और रोटी चारपाई पर पाँव लटकाये बैठे छोटे बच्चे की तरह प्लेट से लटककर इधर-उधर के मजे ले रही थी। एसी थी मेरी शादी की थाली। शादी और शादी की थाली में बस यही अन्तर है: शादी आपका परिवार बढ़ाती है और थाली आपका वज़न।
परन्तु कुछ भी कहो, मेरा तो खाना देखकर मन बहुत ललचाया, मैंने भी पेट की क्षमता से कुछ अधिक खाया और फिर एक नयी शादी की थाली का सपना रचाया।
अगले न्योते का इंतज़ार करती,
लता मक्कड़
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