
रसोई की राजनीति
माँ का मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता, किसी भी क्षेत्र में, चाहे वो बच्चों को बेवकूफ बनाना ही क्यों ना हो। अब मुझे ही देख लो, मैं एक माँ हूँ, सास हूँ। मैं भी अपनी पहुँच के अनुसार अपना दिमाग खूब चलाती हूँ। देश तो नहीं, पर अपना निजी गृह मंत्रालय चलाना बखूबी जानती हूँ।
अब, कल ही की बात ले लो। रविवार था, तो सोचा नाश्ते में बच्चों और पति की पसंद का डोसा बनाया जाए। डोसा तो बनाया, पर साम्बर बच गया। साम्बर ख़त्म करने के लिए दोपहर में दाल भिगो कर वड़े बना दिए। साम्बर तो ख़त्म ही गया, पर वड़े बच गए। भई, बड़े जतन से दही, खट्टी-मीठी चटनी तैयार कर रात को दही-बड़े बना दिए।
अगले दिन फ़्रीज खोला तो दही और चटनियाँ मुँह चिढ़ा रही थीं। बहुत सोचकर कुछ आलू उबाले और चटाखेदार आलू टिक्की चाट बना दी। ऐसा लगा जैसे डोसा ने मेरे किचन में ठिकाना ही बना लिया हो! बड़ी मुश्किल से डोसा यात्रा समाप्त हुई। पर क्या यात्रा सच में समाप्त हुई थी? अब कुछ समय तक डोसा ना बनाने की चुनौती भी मिल गई।
मैंने भी अपनी राजनीति चाल चलते हुए एक राजनेता की तरह मुस्कुराते हुए कह दिया, “कोई बात नहीं, अब से वही बनेगा जो आप लोग चाहेंगे।” लेकिन असलियत आप सब जानते हैं—पूछा सब से जाता है, लेकिन बनता वही है जो हमारा मन चाहता है।
क्या आपके घर में भी ऐसा ही मजेदार किचन पॉलिटिक्स चलती है?
-अपने मासूम से अगले धोखे की तैयारी करती,
लता मक्कड़
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