पता नहीं इस नाचीज़ को किसने इज़ात किया होगा। ख़ुशबू, स्वाद, स्वभाव- सभी को लुभाने वाला। मुँह से तो ठीक है, उसे आँखो से भी खाता है इंसान।
उसका स्वभाव है ही इतना सरल। गरम पर डालो तो कोने-कोने में समा जाता है, ठंडे में रखो तो इतना अज्ञाकारी की जो स्थान दे दोगे वहाँ से हिलेगा भी नहीं।
लेकिन फिर जैसे ही प्यार की गरमाहट मिली, समा जाता है स्वाद के आग़ोश में।
वाह! लिखते-लिखते उसका रूप और स्वभाव आँखो में समा गया और मुँह में पानी आ गया।
काश मैं भी दूबली-पतली होती तो रोज़ इसका भरपूर मज़ा ले पाती। फिर भी कभी-कभी तो मैं भी इसका लुत्फ़ उठा ही लेती हूँ।
सरल सी बात है भाई। हम ज़्यादा मक्खन खा नहीं सकते तो क्या, मक्खन जैसा बन तो सकते हैं।
सरलता के पथ को सीखती,
लता मक्कड़
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