कितना ख़ूबसूरत, कितना प्यारा, गोल-गोल, ना कोई दिखावा, ना कोई ग़ुरूर, बस समर्पण की भावना, सब में समा जाने वाला।
ज़्यादा को कम, कम को ज़्यादा करने वाला, छोटे-बड़े सबकी ज़रूरते पूरी करने वाला, कहीं भी फिट हो जाता है। कूटो-काटो, भूनो, उबालो या कुछ भी कर लो यार! बस उसका समर्पण हमारे अनुसार होता है। इसलिए उसके जैसा बनना हैं मुझे। सबकी ज़रूरत के हिसाब से चलने के लिए हरदम तैयार, बिना किसी शर्त के सबका अज़ीज़। हाँ हैं कुछ जिनका प्रिय नहीं हैं, लेकिन रहता फिर भी साथ हैं किसी ना किसी रूप में, अपनो की तरह। तो चलो हम सब भी आलू की तरह ही बन जाये, सबके दिल के क़रीब।
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